लोक आस्था का महापर्व छठ

यूं तो बिहार में सभी त्योहारों को मनाया जाता है लेकिन छठ का अपना अलग ही रंग और महत्व है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का सबसे प्रचलित त्योहार छठ सूर्य के उगते और डूबते दोनों स्वरुपों की उपासना का त्योहार है। दिवाली के छठे दिन मनाने की वजह से इसे छठ नाम दिया गया है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है और दूसरे दिन यानी सप्तमी को भी मनाया जाता है। चार दिनों का यह त्योहार आस्था और कठिन नियमों के साथ मनाया जाता है।

सूर्य उपासना की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। इस पर्व के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं कहा जाता है कि लंका विजय के बाद भगवान राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन पुत्र प्राप्ति के लिये सूर्य उपासना की थी। ऐसा भी माना जाता है कि सूर्य पुत्र कर्ण ने भी सूर्य की आराधना की थी। महाभारत में सूर्य पूजा का एक और वर्णन मिलता है जब द्रौपदी ने अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिये सूर्य उपासना की थी। एक प्रसंग यह भी है कि इसी दिन विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र का उच्चारण हुआ था।

सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। ऐसा माना जाता है कि पूजा के दौरान अर्घ्यदान के समय साधक अगर अंजली में जल रखकर सूर्याभिमुख होकर उस जल को भूमि पर गिराता है तो सूर्य की किरणें इस जल धारा को पार करते समय प्रिज्म प्रभाव से अनेक प्रकार की पराबैंगनी किरणें अवलोकित करती हैं। ये किरणें साधक के शरीर में जाने से उपचारी प्रभाव देती हैं।

इस पूजा के संदर्भ में कई मान्यताएं हैं कि कोई भी सूर्य के प्रकोप से नहीं बच सकता। इसलिए छठ काफ़ी सावधानी से किया जाता है। ऐसा माना जाता है इस पर्व में मांगी गई मन्नतें पूरी होती हैं।

छठ पूजा दिवाली के चार दिन बाद चतुर्थ से शुरु होकर चार दिनों तक चलती है। इस पर्व में महिलाएं कई दिन पहले से ही तैयारियां शुरु कर देती हैं। घर के सभी सदस्य इस पूजा में स्वच्छता का पूरा ध्यान रखते हैं। पूजा स्थल पर नहा-धोकर ही जाया जाता हैं और वहीं पर तीनों दिन निवास करने का भी रिवाज है।

पर्व के पहले दिन नहाय-खाय होता है। इस दिन व्रती महिलाएं जिन्हें बिहार में परवईतिन भी कहा जाता है अपने बाल धोकर अरवा चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और बाद मे सब लोग इसे प्रसाद के रुप में खाते हैं। व्रती देवकरी में पूजा का सारा सामान रखकर दूसरे दिन खरना की तैयारी में लग जाती हैं। देवकरी पूजा स्थल को कहते हैं।


छठ पूजा के दूसरे दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखती हैं और घर की सफाई की जाती है। संध्या काल में मिट्टी के चूल्हा पर लकड़ी के ईंधन से पीतल के बर्तन में गुड़ का खीर और रोटी बनाती हैं। उसके बाद व्रती देवकरी में पूजा कर खीर-रोटी और फल खाती हैं जिसे में प्रसाद के रुप में लोगों को बांटा जाता है।

छठ के तीसरे दिन 24 घंटे का निर्जला व्रत रखा जाता है और सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है। इस त्योहार में ठेकुआ(आटा और घी से बना) बनाना आवश्यक है। इस दिन पूजा के लिये बांस की टोकरी यानी दऊरा देवकरी में रखकर उसमें पूजा का समान रखते हैं। पूजा में चढाने के लिये सभी फल, ठेकुआ, कच्चा हल्दी, शकरकंद, सुथनी, बादाम, अखरोट और लाल कपड़ा रखा जाता है। इन सारे सामानों को सूप में रखकर उसमें दीप आलोकित करते हैं। नारियल को लाल कपड़े में ही लपेट कर रखा जाता है। शाम में सूर्यास्त से पहले घाट जाया जाता है। घर के पुरुष दऊरा लेकर घाट पर जाते हैं और पीछे से व्रती छठ का गीत गाते चलती हैं। व्रती घाट पर स्नान करती हैं और जल में अर्घ्य देने तक खड़ी रहती हैं। पुरुष भी इस व्रत को करते हैं। व्रती सूर्याभिमुख हो कर हाथ में सूप लेकर चारो दिशाओं की ओर परिक्रमा कर सूर्य भगवान को अर्घ्य देती हैं।

अगले दिन प्रातः काल फ़िर उसी अनुष्ठान का पालन करते हुए सूर्योदय के समय व्रती अर्घ्य देती हैं। अर्घ्य के उपरान्त घाट पर पूजा कर पहले व्रती प्रसाद खाती हैं और श्रद्धालुओं को प्रसाद बांटा जाता है। इस पूजा में प्रसाद माँगकर खाने का भी रिवाज है। पूजा के बाद सब लोग व्रती को प्रणाम करते हैं।
व्रती घर आकर चावल, कढ़ी और पकौड़ी से पारण करती हैं।
चार दिन तक चलने वाला यह व्रत सामुदायिक भावना को जाग्रत करता है और सह-अस्तित्व की बानगी भी पेश करता है।

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